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कोविड-19: ‘कार्बन उत्सर्जन में अस्थाई गिरावट’ से नहीं रुकेगा जलवायु परिवर्तन

वर्ष 2020 के शुरुआती महीनों में दुनिया के कई हिस्सों में औसत से अधिक तापमान होने की संभावना है.
WMO/Kabelo Tamocha
वर्ष 2020 के शुरुआती महीनों में दुनिया के कई हिस्सों में औसत से अधिक तापमान होने की संभावना है.

कोविड-19: ‘कार्बन उत्सर्जन में अस्थाई गिरावट’ से नहीं रुकेगा जलवायु परिवर्तन

जलवायु और पर्यावरण

विश्वव्यापी महामारी कोविड-19 के कारण दुनिया भर में आर्थिक गतिविधियों पर अभूतपूर्व असर हुआ है जिससे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में गिरावट आने की संभावना जताई गई है. संयुक्त राष्ट्र की मौसम विज्ञान एजेंसी (WMO) ने सचेत किया है कि यह एक अच्छी ख़बर है मगर अस्थाई है क्योंकि सामान्य जीवन के फिर शुरू होने के बाद कार्बन उत्सर्जन में फिर से तेज़ी आने की संभावना है.

दुनिया के शीर्ष जलवायु विशेषज्ञों ने महामारी के कारण कार्बन डाय ऑक्साइड के स्तर में 5.5 से 5.7 प्रतिशत की गिरावट आने की बात कही है. 

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विश्व मौसम विज्ञान संगठन के महासचिव पेटेरी टालास ने कहा कि उत्सर्जन में छह फ़ीसदी की गिरावट अच्छी ख़बर है लेकिन दुर्भाग्य से यह थोड़े समय के लिए ही है.  

यूएन एजेंसी के प्रमुख ने आगाह किया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के फिर पटरी पर आने के बाद उत्सर्जन के भी अब तक जारी रुझानों की दिशा में लौटने की संभावना है.

उन्होंने कहा कि यह भी हो सकता है कि उत्सर्जन में तेज़ बढ़ोत्तरी हो क्योंकि अनेक उद्योग फ़िलहाल पूरी तरह ठप हैं. 

विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने 22 अप्रैल को ‘पृथ्वी दिवस’ के 50 वर्ष पूरे होने पर नए आँकड़े प्रकाशित किए हैं जिनके अनुसार वायुमंडल में कार्बन डाय ऑक्साइड सहित अन्य ग्रीनहाउस गैसों के स्तर ने 2019 में नया रिकॉर्ड बनाया. 

यूएन एजेंसी की रिपोर्ट दर्शाती है कि वर्ष 2015 से 2019 तक कार्बन डाय ऑक्साइड के स्तर में उससे पिछले पॉंच सालों की तुलना में 18 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई.   

रिपोर्ट के मुताबिक यह गैस वायुमंडल और महासागर में अनेक सदियों तक रहती है जिसका सीधा अर्थ है कि दुनिया की जलवायु में बदलाव जारी रहेगा, भले ही कोरोनावायरस महामारी के कारण उत्सर्जन में कुछ समय के लिए थोड़ी गिरावट देखने को मिले. 

आँकड़े दर्शाते हैं कि कार्बन डाय ऑक्साइड की सघनता वर्ष 2019 में 410 पार्ट्स पर मिलियन को पार कर सकती है और फ़िलहाल इस अनुमान में कोई बदलाव नहीं आया है. 

कार्बन उत्सर्जन में अनुमानित गिरावट को जीवाश्म ईंधन और वाहनों से निकलने वाले वायु प्रदूषकों (जैसे नाइट्रस ऑक्साइट के कण) के स्तर में आई गिरावट से भी समझी जा सकता है. 

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प्रोफ़ेसर टालास ने कहा, “उनका जीवनकाल दिनों से हफ़्तों तक का है इसलिए असर भी ज़्यादा तेज़ी से दिखाई देता है लेकिन कार्बन उत्सर्जन में इन बदलावों से जलवायु पर अभी कोई असर नहीं पड़ा है.”

प्रदूषित शहरों की वायु में सुधार 

दुनिया के कई बड़े शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों में वायु की गुणवत्ता बेहतर होने का उल्लेख करते हुए यूएन एजेंसी के प्रमुख ने बताया कि चीन, भारत, उत्तरी इटली के अलावा पेरिस जैसे शहरों में ऐसा हो रहा है.

उन्होंने कहा कि कोविड-19 के कारण जो समस्याएँ खड़ी हुई हैं उनके मुक़ाबले जलवायु परिवर्तन की चुनौती का आयाम अलग है. 

पिछले 50 वर्षों में जलवायु परिवर्तन के संकेत और उसके असर भी आम जनजीवन में दिखाई देने लगे हैं और उनमें ख़तरनाक दर से बढ़ोत्तरी हो रही है. 

विश्व मौसम विज्ञान संगठन के महासचिव ने ज़ोर देकर कहा है कि अगर जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के उपाय नहीं किए गए तो इससे स्वास्थ्य दिक़्क़तों का सामना करना पड़ेगा, भुखमरी की चुनौती और ज़्यादा गंभीर होगी और विश्व की बढ़ती आबादी के लिए भोजन की व्यवस्था करना मुश्किल हो जाएगा.

साथ ही जलवायु परिवर्तन का अर्थव्यवस्था पर भी भारी असर होगा. 

वर्ष 1970 में पहली बार ‘पृथ्वी दिवस’ मनाया गया था और उसके बाद से अब तक कार्बन डा य ऑक्साइड के स्तर में 26 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हो चुकी है.

वहीं दुनिया के औसत तापमान में 0.86 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है.  

औद्योगिक काल से पहले की तुलना में अब पृथ्वी 1.1 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो चुकी है और यह रुझान आने वाले दिनों में जारी रहने की संभावना है. 

यूएन एजेंसी नेअपनी ताज़ा रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर चेतावनी जारी करते हुए पिछले पॉंच सालों के सबसे गर्म साल होने का रिकॉर्ड बनाने की पुष्टि की है. 

तापमान में यह बढ़ोत्तरी अलग - अलग क्षेत्रों में अलग-अलग रही है. योरोप में पिछले एक दशक में सबसे ज़्यादा परिवर्तन देखने को मिला है (क़रीब +0.5 डिग्री सेल्सियस) जबकि दक्षिण अमेरिका में सबसे कम बदलाव आया है.

अन्य मुख्य संकेतक दर्शाते हैं कि पिछले पॉंच वर्षों में जलवायु परिवर्तन की रफ़्तार में तेज़ी आई है.

इनमें गर्म होते महासागर और उनका अम्लीकरण, बढ़ता समुद्री जलस्तर (वर्ष 1970 से 112 मिलिमीटर की बढ़ोत्तरी), ग्लेशियरों का पिघलना, और आर्कटिक व अंटार्कटिक क्षेत्र में समुद्री बर्फ़ का बह जाना शामिल है.