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कृषि जैवविविधता की सफलता की कहानी

इस परियोजना के तहत फ़सलों की स्थानीय क़िस्मों को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया जा रहा है.
FAO/ J.Belgrave
इस परियोजना के तहत फ़सलों की स्थानीय क़िस्मों को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया जा रहा है.

कृषि जैवविविधता की सफलता की कहानी

जलवायु और पर्यावरण

चावल का 90 फ़ीसदी से ज़्यादा उत्पादन और खपत एशिया में है. भारत में 1960 के दशक में हरित क्रांति शुरू होने से पहले धान की एक लाख से ज़्यादा क़िस्में थी जिनमें स्वाद, पोषण, कीट-प्रतिरोधक क्षमता के विविध गुणों का मिश्रण होने के साथ-साथ परिस्थितियों के अनुसार ढलने की भी क्षमता भी नीहित थी. जलवायु परिवर्तन से उपजी चुनौती के मद्देनज़र ऐसी क़िस्मों को फिर से बढ़ावा देने के प्रयासों में सफलता मिल रही है. 

ये जैवविविधता उच्च पैदावार वाली प्रजातियों और क़िस्मों की खोज के कारण लुप्त हो गई है. लेकिन भारत के छोटे और सीमांत किसान चावल की कई पारंपरिक क़िस्में स्थानीय उपभोक्ताओं की प्राथमिकताओं और बाज़ार की पसंद के अनुरूप आज भी उगा रहे हैं.

अलायंस ऑफ बायोवर्सिटी इंटरनेशनल और इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर के एक पदाधिकारी राणा जय का कहना है, "इन सीमांत क्षेत्रों में फ़सल आदिवासी संस्कृति के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई है और ऊपरी स्थानों पर रहने वाले लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाती है." 

भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के सर्गुजा ज़िले के छह गांवों की 20 आदिवासी महिला किसानों के समूह ने वर्ष 2005 में जीराफूल नामक चावल की एक पारंपरिक क़िस्म के अस्तित्व पर मंडराते ख़तरे को समझा और उसकी संरक्षा व उसकी उपज को प्रोत्साहन देने के लिए एक स्व-सहायता समूह (self-help group) का गठन किया. 

जीराफूल, चावल की एक स्वदेशी, सूक्ष्म और सुगंधित क़िस्म है. इसका दाना जीरा जैसा मुलायम होता है और ठंडा होने के बाद भी परतदार रहता है.

धीरे-धीरे स्थानीय बाजारों में इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई जिससे समूह के सदस्यों की संख्या बढ़ी और उन्होंने अंततः इस क़िस्म को 'प्लांट वैराइटीज़ एंड फार्मर्स राइट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के साथ पंजीकृत कराने का फ़ैसला लिया.

जीराफूल क़िस्म मुख्य रूप से सर्गुजा जिले में ही उगाई जाती है. इसी वजह से समूह ने एक भौगोलिक संकेत टैग के लिए भी आवेदन किया जिसे मार्च 2019 में 10 वर्षों की अवधि के लिए मंज़ूरी मिल गई.

'वैश्विक पर्यावरण सुविधा' से सहायता 

वर्ष 2005 के बाद से जीराफूल की उपज का क्षेत्र 120 हैक्टेयर से बढ़कर 400 हैक्टेयर हो गया है और सर्गुजा जिले में उसका उत्पादन 180 टन से बढ़कर एक हज़ार टन तक पहुँच गया है.

इस प्रोजेक्ट में लैब विश्लेषण के ज़रिए पोषण संबंधी जानकारी भी जुटाई जा रही है.
Bioversity International/Deepak Sharma
इस प्रोजेक्ट में लैब विश्लेषण के ज़रिए पोषण संबंधी जानकारी भी जुटाई जा रही है.

'वैश्विक पर्यावरण सुविधा' (Global Environment Facility) ने जीराफूल पहल की सफलता को पहचानते हुए उसे एक परियोजना का रूप दिया.

इस प्रोजेक्ट को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) से मदद प्राप्त है और उसे 'अलायंस ऑफ बायोवर्सिटी इंटरनेशनल', 'इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर' और 'भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद' ने मिलकर लागू किया है.

यह परियोजना वर्ष 2016 से नवंबर 2022 तक चलेगी और इसका उद्देश्य टिकाऊ विकास एजेंडा के दूसरे लक्ष्य (भुखमरी का अंत, खाद्य सुरक्षा, बेहतर पोषण और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा), लक्ष्य-13 (जलवायु कार्रवाई) और लक्ष्य-15 (भूमि पर जीवन) को हासिल करना है. 

परियोजना का मुख्य उद्देश्य सात राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में समुदायों की सहन-क्षमता को बढ़ाना है ताकि वे विविध फ़सलें उगाकर खाद्य सुरक्षा प्राप्त कर सकें और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से भी बच सकें. इन राज्यों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम और लद्दाख क्षेत्र शामिल है. 

यूएन पर्यावरण एजेंसी के जैवविविधता विशेषज्ञ मैक्स ज़ियरन ने बताया कि परियोजना के तहत, किसानों को अपनी पौध के आनुवंशिक संसाधनों पर नियंत्रण रखने के लिए सशक्त बनाया जा रहा है. 

परियोजना की उपलब्धियां 

परियोजना के अंतर्गत केंद्रीय समूहों के साथ चर्चा के अलावा 20 फ़सलों के मौजूदा और अतीत के प्रकारों पर सर्वेक्षण किया गया जिसमें पाया गया कि अनेक किसान अब भी 20 लक्षित क़िस्में उगा रहे हैं. 

इन क़िस्मों के संरक्षण में मदद के लिए 19 सामुदायिक बीज बैंक शुरु किए गए हैं जिनसे किसानों को विभिन्न प्रकार के बीजों की उपलब्धता आसानी से संभव हो सकेगी. 

इस परियोजना के तहत आठ हज़ार से ज़्यादा किसानों ने 43 क्षमता-निर्माण कार्यक्रमों में हिस्सा लिया है.

राजस्थान के जोधपुर में 55 वर्षीय पुंजा राम कहते हैं, "मुझे बहुत ख़ुशी है कि इस परियोजना के ज़रिए चावल की हमारी पुरानी क़िस्में, जैसे मूछवाली बाजरी, पीली बाजरी और सुलखानिया बाजरी वापस आ रही हैं."

“हमने उन्हें खो दिया था क्योंकि हमने आधुनिक क़िस्में उगानी शुरू कर दी थी, लेकिन उनका स्वाद अच्छा नहीं है और उनमें भारी निवेश की आवश्यकता होती है जो हमारे लिए हमेशा संभव नहीं है."

"हमारी पुरानी क़िस्में पकाने और स्वाद में बहुत अच्छी हैं. इसके अलावा, कुछ क़िस्में, जैसे मूछवाली बाजरी को पक्षी नुक़सान नहीं पहुंचाते इसलिए पक्षियों को भगाने में हमारा समय नष्ट नहीं होता.”

इस परियोजना के तहत पोषण संबंधी जानकारी जुटाने (Nutrition profiling) के लिए लैब विश्लेषण का भी  इस्तेमाल किया जाता है. अब तक चावल की 205 स्थानीय प्रजातियों, सोयाबीन की 23 क़िस्मों और बाजरे की 26 प्रजातियों का विश्लेषण किया जा चुका है. 

यह रिपोर्ट इस लेख का संक्षिप्त संस्करण है.