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विकलांगों के समावेशन के लिए तेज़ कार्रवाई की दरकार

इस बीमारी से मिथक भी जुड़े हैं और अधिकांश देशों में इसे संक्रामक बीमारी के रूप में भी देखा जाता है.
© UNICEF/Amminadab Jean
इस बीमारी से मिथक भी जुड़े हैं और अधिकांश देशों में इसे संक्रामक बीमारी के रूप में भी देखा जाता है.

विकलांगों के समावेशन के लिए तेज़ कार्रवाई की दरकार

मानवाधिकार

संयुक्त राष्ट्र उपमहासचिव आमिना जे मोहम्मद ने कहा है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने विकलांग लोगों के अधिकार सुनिश्चित करने के इरादे से अभूतपूर्व फ़्रेमवर्क पर सहमति बनाई है. लेकिन महत्वाकांक्षा और यथार्थ में अब भी एक बड़ा फ़ासला है और लाखों विकलांगों को अब भी रोज़मर्रा के जीवन में कड़वी सच्चाई का सामना करना पड़ता है.  यूएन उपप्रमुख ने शनिवार को क़तर की राजधानी दोहा में विकलांगता और विकास के विषय पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए यह बात कही.

उन्होंने कहा कि आम लोगों की तुलना में विकलांग व्यक्तियों को स्वास्थ्य सेवाएँ पाने में भी अवरोधों का सामना करना पड़ता है और उनके स्कूल जाने व प्राथमिक शिक्षा पूरी करने की भी संभावना कम होती है.

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“ग़रीबी और भुखमरी में जीवन गुज़ार रहे विकलांगों की संख्या आम जनसंख्या की तुलना में ज़्यादा है – कई देशों में यह दोगुनी है.”

विकलांगजनों के अधिकारों पर संधि पर अब तक 181 सदस्य देशों ने मुहर लगाई है और मानवाधिकारों के संदर्भ में यह सबसे व्यापक स्वीकृति वाली संधियों में शामिल है.

यह संधि और 2030 टिकाऊ विकास एजेंडा के ज़रिए प्रयास किया गया है कि एक बेहतर दुनिया के निर्माण में विकलांगों सहित किसी को भी पीछे ना छूटने दिया जाए.

इसके बावजूद विश्व भर में एक अरब से ज़्यादा विकलांगजन अपने दैनिक जीवन में मुश्किलों का सामना करने के लिए मजबूर हैं. इनमें 80 फ़ीसदी से अधिक लोग विकासशील देशों में रहते हैं और अक्सर हाशिए पर धकेल दिए जाने की स्थिति का सामना करते हैं.

हर क्षेत्र में विकलांगों को कलंक का सामना करना पड़ता है और अक्सर उन्हें अपने अधिकारों की पूरी समझ नहीं होती.

यूएन उपमहासचिव ने आगाह किया कि कलंक की मानसिकता से व्यवस्थागत भेदभाव पनपता है जिसके कारण उन्हें शिक्षा, कार्यस्थल, स्वास्थ्य सेवाओं और सार्वजनिक जीवन में समान भागीदारी के अवसर नहीं मिल पाते.

“बहुत से विकलांगजनों, विशेषकर महिलाओं व लड़कियों के लिए, यह भेदभाव कई गुना ज़्यादा होता है.”

यूएन उपमहासचिव ने स्पष्ट किया कि ऐसी स्थिति आगे जारी नहीं रह सकती क्योंकि यह मानवीय गरिमा व विकलांगजनों का समावेशन सुनिश्चित करने और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत दायित्वों को पूरा करने के सामूहिक संकल्प के विपरीत है.

“यह हम सब पर निर्भर करता है – सरकारों, व्यवसायों, नागरिक समाज, विकलांजनों के संगठन, अंतरराष्ट्रीय संगठन और अन्य पर – कि इस स्थिति को बदल दिया जाए.”

आमिना मोहम्मद ने ध्यान दिलाया कि सितंबर 2019 में यूएन प्रमुख एंतोनियो गुटेरेश ने ‘कार्रवाई के दशक’ की पुकार लगाई है जिसके मूल में वर्ष 2030 तक टिकाऊ विकास लक्ष्यों को हासिल करना है.

महासचिव गुटेरेश ने सभी लोगों से सामाजिक समावेशन, जलवायु कार्रवाई और लैंगिक समानता के लिए एक वैश्विक आंदोलन का हिस्सा बनने की अपील की है.

उन्होंने कहा कि इस दिशा में प्रयासों के लिए विकलांगजनों के समावेशन के विषय में प्रगति भी अहम होगी. इसके लिए उन्होंने चार प्रमुख बिंदु सामने रखे हैं:

  • कुछ देशों को उच्च गुणवत्ता वाले और विश्वसनीय डेटा की उपलब्धता बढ़ानी होगी
  • राष्ट्रीय बजट में विकलांगता के समावेशन को प्राथमिकता के रूप में देखना होगा
  • समाज में पूर्ण समावेशन और अर्थपूर्ण भागीदारी के लिए सार्वजनिक सेवाएँ सुलभ बनानी होंगी
  • हिंसक संघर्ष और संकटग्रस्त इलाक़ों में विकलांगों को सहारा सुनिश्चित करना होगा