जलवायु संकट: मानव स्वास्थ्य पर गंभीर असर, समुचित तैयारी की कमी

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कहा है कि चरम मौसम की घटनाओं – लू, चक्रवाती तूफ़ानों, बाढ़, सूखा – से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का ख़तरा लगातार बढ़ रहा है लेकिन इसके बावजूद अधिकतर देश इस दिशा में अभी पर्याप्त स्तर पर प्रयास नहीं कर रहे हैं. वहीं यूएन की मौसम विज्ञान एजेंसी (WMO) ने कहा है कि वर्ष 2019 में समाप्त होने वाला दशक अब तक का सबसे गर्म दशक साबित होने की संभावना है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैश्विक स्तर पर पहली बार एक समीक्षा के तहत 100 देशों में हालात का आकलन किया है. समीक्षा के अनुसार पचास फ़ीसदी से ज़्यादा देशों ने जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य के बीच संबंध को प्राथमिकता देते हुए रणनीति तैयार की है.
लेकिन 38 फ़ीसदी देशों के पास जितने संसाधन हैं उसके सहारा इन योजनाओं को आंशिक रूप से ही लागू किया जा सकता है. 10 फ़ीसदी से कम देश ही अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए ज़रूरी धनराशि ख़र्च कर रहे हैं.
From respiratory diseases to mental health challenges, the impacts of the climate emergency are putting human health at risk.Get details from @WHO: https://t.co/a5iuP7Njkg #ClimateAction pic.twitter.com/6LtENOM3Tu
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यूएन स्वास्थ्य एजेंसी के डॉक्टर टेड्रोस अधानोम घेब्रेयेसस ने कहा, “जलवायु परिवर्तन से ना सिर्फ़ एक ऐसा बिल तैयार हो रहा है जिसका भुगतान भावी पीढ़ियों को करना होगा, बल्कि इसकी क़ीमत मौजूदा दौर में लोग अपने स्वास्थ्य से चुकाएंगे. यह नैतिक दृष्टि से ज़रूरी है कि देशों के पास जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई के लिए संसाधन हों और वे वर्तमान और भविष्य में अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकें.”
जलवायु परिवर्तन से लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर की समीक्षा की गई है. उनमें तेज़ गर्मी से तबीयत बिगड़ने और चरम मौसम की घटनाओं से लोगों का हताहत होना है. साथ ही खाद्य व जल सुरक्षा और हैज़ा, डेंगू बुख़ार और मलेरिया जैसी बीमारियों का भी ज़िक्र किया गया है.
रिपोर्ट बताती है कि देशों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु कार्रवाई के लिए वित्तीय साधन जुटाने में मुश्किलें पेश आती हैं. सर्वे में शामिल 75 फ़ीसदी देशों का कहना है कि इस संबंध में उनके पास पर्याप्त जानकारी नहीं है जबकि 50 प्रतिशत देशों के पास इस सिलसिले में प्रस्ताव तैयार करने की क्षमता की कमी है.
स्वास्थ्य को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जलवायु प्रक्रियाओं में शामिल करने से ज़रूरी फ़ंड का इंतज़ाम किया जा सकता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के पुराने शोध दर्शाते हैं कि पेरिस समझौते के अनुरूप कार्बन उत्सर्जन में कटौती से विश्व भर में वर्ष 2050 तक हर साल दस लाख ज़िंदगियाँ बचाई जा सकेंगी.
ये नतीजे महज़ वायु प्रदूषण में कमी लाकर हासिल किए जा सकते हैं लेकिन बहुत से देश अब भी इस संभावना का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं.
यूएन स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ कार्बन उत्सर्जन में कटौती से होने वाले स्वास्थ्य लाभों का ज़िक्र राष्ट्रीय जलवायु संकल्पों में कभी-कभार ही देखने को मिलता है.
उदाहरण के लिए, महज़ 20 फ़ीसदी देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती के संदर्भ में स्वास्थ्य का उल्लेख किया है, जबकि स्वास्थ्य लाभों का उल्लेख सिर्फ़ दस प्रतिशत संकल्पों में किया गया है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन में जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य मामलों के विभाग में निदेशक डॉक्टर मारिया नेयरा ने बताया, “लोगों के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए अगर पेरिस समझौते को असरदार बनाना है तो सरकारों के सभी स्तरों पर स्वास्थ्य प्रणालियों में जलवायु सहनशीलता का निर्माण करना होगा और इस दिशा में काम करने वाली सरकारों की संख्या लगातार बढ़ रही है.”
उनका कहना है कि राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाओं, राष्ट्रीय संकल्पों, जलवायु कार्रवाई के लिए वित्तीय संसाधनों व अन्य प्रयासों में स्वास्थ्य को शामिल करने से पेरिस समझौते को इस सदी का सबसे मज़बूत अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य समझौता बनाया जा सकता है.
इस बीच ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी का होना जारी है.
विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने मंगलवार को वैश्विक जलवायु हालात पर एक बयान जारी किया है जिसके मुताबिक़ वर्ष 2019 इतिहास का दूसरा या तीसरा सबसे गर्म साल साबित हो सकता है.
जनवरी 2019 से अक्टूबर 2019 तक विश्व का औसत तापमान पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 1.1 डिग्री सेल्सियस अधिक था.
मौसम विज्ञान संगठन के महासचिव पेटेरी टालास ने बताया कि अगर अभी तत्काल कार्रवाई नहीं की गई तो इस सदी के अंत तक हम तापमान में तीन डिग्री की बढ़ोत्तरी की दिशा में बढ़ रहे हैं जिसके मानव कल्याण पर नुक़सानदेह नतीजे होंगे.
उन्होंने आगाह किया कि फ़िलहाल दुनिया पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पाने से दूर है – इस समझौते में वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया है.
हाल ही में यूएन एजेंसी ने सचेत किया था कि वातावरण में कार्बन डाय ऑक्साइड की सघनता लगातार बढ़ती जा रही है - पिछले साल की वृद्धि लगभग उतनी ही थी जितनी औसतन पिछले 10 सालों में देखने को मिली है.
वर्ष 2018 में गैस की मात्रा का स्तर 407.8 पार्ट्स प्रति मिलियन मापा गया है.
ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में बर्फ़ की चादर पिघलने से समुद्री जलस्तर में वृद्धि हुई है और महासागर भी रिकॉर्ड स्तर पर गर्म हो रहे हैं जिससे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्रों का क्षरण हो रहा है.
ये रिपोर्ट कई यूएन एजेंसियों की मदद से तैयार की गई है और यह दर्शाती है कि मौसम और जलवायु में बदलाव से स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, प्रवासन, पारिस्थितिकी तंत्रों और समुद्री जीवन पर किस तरह असर पड़ेगा.
जलवायु परिवर्तन और चरम मौसम की घटनाएं होने से विश्व में भुखमरी भी बढ़ी है और अब इससे 82 करोड़ से ज़्यादा लोग प्रभावित हैं.