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भोपाल त्रासदी: रसायन उद्योग जगत को ‘मानवाधिकारों का सम्मान करना होगा’

यूएन के अनुमान के मुताबिक़ वर्ष 2030 तक रसायन उद्योग आकार में दोगुना हो जाएगा.
Photo: UNEP
यूएन के अनुमान के मुताबिक़ वर्ष 2030 तक रसायन उद्योग आकार में दोगुना हो जाएगा.

भोपाल त्रासदी: रसायन उद्योग जगत को ‘मानवाधिकारों का सम्मान करना होगा’

मानवाधिकार

संयुक्त राष्ट्र के एक स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने भारत में भोपाल गैस त्रासदी के 35 साल पूरे होने पर रसायन निर्माताओं से अपनी ज़िम्मेदारी समझने और मानवाधिकारों का सम्मान करने की अपील की है. यूएन के विशेष रैपोर्टेयर बास्कुट तुनचक ने कहा है स्वैच्छिक मानवाधिकार मानकों को अपनाने की प्रक्रिया में कमज़ोरियां नीहित हैं और इसलिए मज़बूत क़ानूनी विकल्पों की तत्काल आवश्यकता है.

ख़तरनाक पदार्थों व कचरे के बेहतर पर्यावरणीय प्रबंधन मामलों के लिए यूएन के विशेष रैपोर्टेयर बास्कुट तुनचक ने बताया कि भोपाल की गैस त्रासदी की कहानी अभी पूरी नहीं हुई है क्योंकि कीटनाशक फ़ैक्ट्री के दुष्प्रभावों के कारण दूषित जल और मिट्टी ने भोपाल की कई पीढ़ियों को गरिमा और विकास के साथ जीने के उनके अधिकार से रोका है.

2 दिसंबर 1984 की रात में भारत के मध्य प्रदेश राज्य के भोपाल शहर में यूनियन कार्बाइड कैमिकल फ़ैक्ट्री में बेहद ज़हरीली गैस का रिसाव होने से हज़ारों लोगों की मौत हो गई थी.

जिस समय गैस शहर की आबोहवा में घुलनी शुरू हुई उस समय अधिकांश लोग घरों में सो रहे थे. एक अनुमान के मुताबिक़ इस घटना में 5,200 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी.

गैस कांड के दौरान इस फ़ैक्ट्री का स्वामित्व यूनियन कार्बाइड के पास था जो अब डाओ-डूपॉन्ट की अधीनस्थ कंपनी है.

संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि वर्ष 2030 तक रसायन उद्योग आकार में दोगुना हो जाएगा और इसी वजह से मानवाधिकारों पर उसका ख़ासा असर होने की आशंका भी बढ़ेगी.

यूएन विशेषज्ञ ने कहा कि उत्पादन केंद्रों और रासायनिक उत्पादों का यथोचित परीक्षण बेहद आवश्यक है और इसे एक मानक के रूप में स्थापित किया जाना होगा.

मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने पर बल

यूएन रैपोर्टेयर का कहना है कि कैमिकल इंडस्ट्री की ओर से ‘रेस्पॉन्सिबल केयर’ पहल को वर्ष 1986 में अपनाया गया था जिसका उद्देश्य भोपाल गैस त्रासदी के बाद रसायन निर्माताओं द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन की रोकथाम करना था.

लेकिन इस पहल में मानवाधिकारों का कोई उल्लेख नहीं रहा है और वास्तविकता के धरातल पर यह पहल कारगर साबित नहीं हो पाई.

“मामले दर मामले दर्शाते हैं कि रसायन उद्योग जीवन और अच्छा स्वास्थ्य सुनिश्चित करने में विफल रहा है और ना ही वो नीतियां सही मायनों में लागू हो पाई हैं जिनका ज़िक्र व्यवसाय और मानवाधिकारों पर यूएन के दिशानिर्देशों में किया गया है.”

उन्होंने आगाह किया कि मानवाधिकारों के मामले में स्वैच्छिक मानक अपनाने की प्रक्रिया में कमज़ोरियां नीहित हैं और इसीलिए मज़बूत क़ानूनी शक्तियों के होने की तत्काल आवश्यकता है.

मौजूदा दौर में विश्व को जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता के लुप्त होने और लोगों व पृथ्वी का स्वास्थ्य बिगड़ने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. लगभग सभी रसायन कंपनियों की नीतियों में सतही तौर पर मानवाधिकार का ज़िक्र किया जाता है. 

साथ ही ज़हरीले उत्पादों व अवशिष्ट पदार्थों से श्रमिकों, बच्चों और अन्य लोगों पर होने वाले असर को भी नियमित रूप से परखा जाना होगा.

इसके लिए इंडस्ट्री एसोसिएशन की भूमिका को अहम बताया गया है ताकि सदस्य कंपनियों को रसायनों के ज़हरीले प्रभावों व प्रदूषण जोखिमों के बारे में जानकारी दी जा सके.

स्पेशल रैपोर्टेयर और वर्किंग ग्रुप संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रिया का हिस्सा हैं. ये विशेष प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार व्यवस्था में सबसे बड़ी स्वतंत्र संस्था है. ये दरअसल परिषद की स्वतंत्र जाँच निगरानी प्रणाली है जो किसी ख़ास देश में किसी विशेष स्थिति या दुनिया भर में कुछ प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है. स्पेशल रैपोर्टेयर स्वैच्छिक रूप से काम करते हैं; वो संयक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और उन्हें उनके काम के लिए कोई वेतन नहीं मिलता है. ये रैपोर्टेयर किसी सरकार या संगठन से स्वतंत्र होते हैं और वो अपनी निजी हैसियत में काम करते हैं.