युवाओं पर आतंकवाद निरोधक कार्रवाई की भारी गाज़, लाखों हैं हिरासत में
मानवाधिकार विशेषज्ञों का कहना है दुनिया भर में क़रीब 72 लाख से अधिक बच्चे हिरासत में रखे गए हैं. इनमें ऐसे युवाओं की भी बड़ी संख्या जिन्हें सशस्त्र गुटों से संबंध रखने के आरोप और उनकी सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा होने की दलील देते हुए आक्रामक आतंकवाद निरोधक उपायों के तहत हिरासत में लिया गया है.
संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट, Global Study on Children Deprived of Liberty, के अनुसार चरमपंथियों द्वारा भर्ती बच्चों से लेकर सड़कों पर ग़ैर-ज़िम्मेदारी के साथ घूमने वाले बच्चों, विकलांग बच्चों और किसी सुरक्षित स्थान पर शरण की तलाश में निकले लोगों के साथ यात्रा करने वाले बच्चों - सभी तक, अगर बच्चों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित रखा जाए तो उनके साथ दुर्व्यवहार होने या उससे भी बदतर हालात होने की संभावना बढ़ जाती है.
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यूएन की ओर से नियुक्त स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ प्रोफ़ैसर मैनफ्रेड नोवाक का कहना है, "स्वतंत्रता से वंचित होना बचपन से वंचित हो जाना है.”
"बच्चों को परिवारों के साथ रहने और परवरिश पाने का माहौल मिलना चाहिए नाकि उन संस्थानों में रहने का - जहाँ वे वास्तव में आज़ादी से वंचित रहें और जहां सख़्त अनुशासन व हिंसा होती है, जहां उन्हें प्यार और हमदर्दी नहीं मिलती.”
रिपोर्ट के मुताबिक़ सशस्त्र संघर्ष या राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में फ़ेसबुक और ट्विटर पर पोस्टिंग सहित अन्य ऑनलाइन गतिविधियों के कारण हिरासत में लिए जाने वाले और मुक़दमों का सामने करने वाले बच्चों की संख्या बढ़ रही है.
बच्चों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित रखा जाना चिंता, अवसाद, आत्महत्या के विचारों और अन्य समस्याओं से भी जुड़ा हुआ है.
हिरासत के दौरान रहने से बच्चों में मनोरोग संबंधी विकार दस गुना बढ़ने की आशंका होती है. साथ ही इसे बच्चों के रिहा होने के बाद उनकी मौत होने से भी जोड़कर देखा गया है.
ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने नाऊरू द्वीप पर बाल प्रवासियों को हिरासत में रखे जाने की नीति बंद कर दी है, लेकिन ऐसी परिस्थिति में रहने के चिकित्सा आकलन का हवाला देते हुए प्रोफ़ैसर नोवाक ने बताया कि बेहद दर्दनाक परिस्थितियों से गुज़रने को मजबूर ऐसे बच्चे उन्होंने कम ही देखे हैं.
प्रोफ़ैसर नोवाक के अनुसार बाल सैनिक होने या आतंकवाद से संबंध होने के संदेह पर पूर्वोत्तर सीरिया में 29 हज़ार युवाओं को ऐसे इलाक़ों में हिरासत में रखा गया है जहाँ किसी समय कुर्दों का दबदबा रहा था.
उन्होंने कहा कि इनमें से कई बच्चों को दाएश के लड़ाकों ने भर्ती किया था या फिर उनके माता-पिता उन्हें सीरिया लाए थे.
नोवाक ने बताया कि इनमें से कुछ बच्चों का जन्म शिविर में हुआ था और अब उन्हें बहुत ही अपमानजनक परिस्थितियों में हिरासत में रखा गया है.
इसके अलावा 19 हज़ार युवाओं को उनकी माताओं के साथ हिरासत में रखा गया है.
यह अध्ययन हर 10 साल में किया किया जाता है और इसके मुताबिक़ चार लाख 10 हज़ार बच्चों को हर साल हिंसा प्रभावित इलाक़ों में जेलों और मुक़दमे की कार्रवाई से पहले हिरासत में रखा जाता है.
इनमें से कई युवाओं पर ग़ैरहाज़िरी, अवज्ञा और कम उम्र में शराब पीने जैसे आरोप लगाए जाते हैं और सभी बंदियों में से 94 प्रतिशत लड़के हैं.
इसके अलावा हर साल अन्य दस लाख युवाओं को पुलिस हिरासत में लिया जाता है.
साथ ही 80 देशों में सवा तीन लाख से ज़्यादा बच्चों को हर साल आप्रवासन हिरासत में रखा जाता है जबकी छह लाख 70 हज़ार बच्चों को ऐसी संस्थाओं में रखा जाता है जिन्हें "स्वतंत्रता से वंचित करने की क़ानूनी परिभाषा को पूरा करने वाले संस्थानों" में रखा जाता है.
नज़रबंदी केवल अंतिम उपाय हो
प्रोफ़ैसर नोवाक ने “बाल अधिकारों पर संधि” का हवाला देते हुए बताया कि नाबालिगों को हिरासत में लेना अंतिम उपाय होना चाहिए.
जब नज़रबंदी अनिवार्य हो, तब यह एक छोटी अवधि के लिए होनी चाहिए. साथ ही उन्होंने कहा कि यह सरकार की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए की वो ऐसे विकल्प खोजें जिनमें बच्चों को हिरासत में लेने की ज़रूरत ना पड़े, विशेष रूप से परिवारों और बाल कल्याण सेवाओं की सहायता की जाए.
नोवाक का ये भी कहना है कि पुलिस को गिरफ़्तार किए गए युवाओं और वयस्कों को अलग-अलग स्थानों पर रखना चाहिए.
प्रोफ़ैसर नोवाक ने कहा कि हिरासत में रखे गए कुल किशोरों में लगभग 94 प्रतिशत संख्या लड़कों की है. साथ ही ध्यान भी दिलाया हिरासत का लड़कों पर किस तरह प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
उन्होंने ये बताया कि लड़कियों को अक्सर उनके परिवारों के पास वापस भेज दिया जाता था, जबकि वे हर तीन में से एक अपराध के लिए ज़िम्मेदार होती हैं.