सस्ता इंसुलिन मिलेगा आसानी से, मरीज़ों की होगी बड़ी मदद

डायबिटीज़ यानी मधुमेह बीमारी को नियंत्रण में रखने के लिए ज़रूरी इंसुलिन की महंगी क़ीमत अब गुज़रे ज़माने की बात हो सकती है जिससे लाखों-करोड़ों मरीज़ों के जीवन में नया बदलाव लाने और इलाज में मदद मिलने की संभावना है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने एक नई योजना शुरू की है जिसके ज़रिए विश्व भर में सस्ते इंसुलिन का उत्पादन बढ़ाया जाएगा.
यूएन स्वास्थ्य एजेंसी के इस दो-वर्षीय पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत ‘विश्व मधुमेह दिवस’ से ठीक पहले हुई है जो हर वर्ष 14 नवंबर को मनाया जाता है. इसके तहत औषधि निर्माताओं द्वारा तैयार की जाने वाली इंसुलिन की गुणवत्ता को परखा जाएगा ताकि उसकी सुरक्षा, असर और किफ़ायतीपन को परखा जा सके.
यूएन महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने इस दिवस पर अपने संदेश में डायबिटीज़ से पीड़ित मरीजों पर पड़ने वाले भारी आर्थिक बोझ को रेखांकित किया है.
People with type 1 #diabetes need #insulin for survival & to maintain their 🩸 glucose at levels to ⬇️ the risk of blindness & kidney failure.People with type 2 diabetes need it for controlling 🩸 glucose levels to avoid complications when oral medicines become less effective. pic.twitter.com/rVGsxsXITS
WHO
“डायबिटीज़ से स्वास्थ्य को क्षति पहुंचती है और शिक्षा व रोज़गार की आकांक्षाएं प्रभावित होती हैं. इससे समुदायों पर असर पड़ता है और परिवारों को मजबूरी में आर्थिक विपत्ति का सामना करना पड़ता है.”
कम और निम्न आय वाले देशों में ऐसा विशेष रूप से देखा जाता है.
यूएन एजेंसी ने जिनीवा में बुधवार को इस पहल की घोषणा करते हुए बताया कि ऐसी कई फ़ार्मेस्यूटिकल कंपनियों ने अनौपचारिक रूप से इस विषय में दिलचस्पी ज़ाहिर की है जिनकी इंसुलिन का उत्पादन करने की योजना है. इन कंपनियों ने स्वास्थ्य संगठन से इनका इस्तेमाल सुरक्षित होने के बारे में समीक्षा करने को कहा है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन में निदेशक एमर कुक ने कहा, “आसान बात ये है कि डायबिटीज़ के मामले बढ़ रहे हैं और उसके उपचार के लिए ज़रूरी इंसुलिन की उपलब्धता बेहद कम है, उसकी क़ीमत महंगी है इसलिए हमें कुछ करने की आवश्यकता है.”
यूएन एजेंसी का कहना है कि अगर दवाई निर्माताओं ने पर्याप्त दिलचस्पी दिखाई और इंसुलिन की उपलब्धता बढ़ी तो इस योजना को और ज़्यादा व्यापक रूप से लागू किया जाएगा.
“हम आवेदन करने वाली कंपनियों की संख्या को देखेंगे, देखेंगे कि इसमें कितना समय लगता है, हम उसके नतीजे देखेंगे और पता लगाएंगे कि क्या वाक़ई इसकी पहुंच बढ़ रही है.”
इस प्रक्रिया को ‘प्रीक्वालिफ़िकेशन’ कहा जाता है और अतीत में भी यूएन एजेंसी ने बिना ब्रैंड वाली उन दवाइयों के लिए यह रास्ता अपनाया है जिनसे टीबी, मलेरिया और एचआईवी का उपचार किया जाता है.
इससे विश्व भर में मरीज़ों को इलाज के बोझ से छुटकारा दिलाने में मदद मिली है, और एचआईवी के 80 फ़ीसदी से ज़्यादा मरीज़ अब बिना ब्रैंड वाली दवाईयों पर निर्भर हैं.
एमेर कुक ने बताया कि कुछ कंपनियों ने क़ीमतें कम करने का संकल्प ले लिया है. “जब (एचआईवी) एंटी-रेट्रोवायरल दवाईयों को पहली बार बनाया गया था तो उनकी क़ीमत प्रति मरीज़ 10 हज़ार डॉलर थी. लेकिन जैनेरिक एचआईवी उत्पादों के लिए प्रीक्वालिफ़िकेशन की शुरुआत करने से क़ीमत प्रति वर्ष 300 डॉलर से नीचे आ गई है.”
उन्होंने उम्मीद जताई कि प्रतिस्पर्धा से ऊंची क़ीमतों को नीचे लाने में मदद मिलेगी. इस तरह देशों के पास बेहतर चयन का अवसर होगा जो किफ़ायती भी होगा.
मौजूदा समय में इंसुलिन के वैश्विक बाज़ार पर तीन बड़ी कंपनियों का अधिकांश नियंत्रण है. डायबिटीज़ के इलाज के लिए इंसुलिन की खोज वर्ष 1921 में हुई थी.
इंसुलिन से रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर नीचे लाने में मदद मिलती है. यह एक ऐसा काम है जो खाना खाने के बाद स्वाभाविक रूप से शरीर में पैंक्रियास द्वारा पैदा किए जाने वाले इंसुलिन से होता है.
वर्ष 1980 के बाद से डायबिटीज़ से पीड़ित लोगों की संख्या में चार गुना बढ़ोत्तरी हुई है और अब ऐसे मरीज़ों की संख्या 42 करोड़ है जिनमें अधिकतर कम और निम्न आय वाले देशों में हैं.
इसकी प्रमुख वजह खान-पान की ख़राब आदतें और कसरत का अभाव बताया जाता है.
दुनिया भर में टाइप-1 डायबिटीज़ से 2 करोड़ लोग पीड़ित हैं जिन्हें नियमित रूप से इंसुलिन के इंजेक्शन की ज़रूरत होती है.
साढ़े छह करोड़ मरीज़ ऐसे हैं जो टाइप-2 डायबिटीज़ का शिकार हैं और उन्हें भी इंसुलिन की आवश्यकता होती है लेकिन उनमें से सिर्फ़ आधे मरीज़ों को ही इंसुलिन मिल पाता है.
कुछ देशों में तो इंसुलिन की क़ीमतें इतनी ज़्यादा हैं कि लोगों को इंसुलिन सीमित मात्रा (राशन) में ही मिल पाता है.
इंसुलिन की उपलब्धता ना होने से मरीज़ों पर दिल का दौरा या स्ट्रोक पड़ने, किडनी क्षतिग्रस्त होने, अंधापन होने जैसे ख़तरों का सामना करना पड़ता है.
वर्ष 2016 में विश्व भर में होने वाली मौतों की संख्या के मामले में डायिबिटिज़ सातवें स्थान पर थी. यह तथ्य इसलिए चिंताजनक है क्योंकि बीमारी से लोगों की असामयिक मौत होती है.
यूएन स्वास्थ्य एजेंसी के अनुसार चार महाद्वीपों के 24 देशों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर इंसुलिन महज़ 61 फ़ीसदी स्वास्थ्य केंद्रों पर ही उपलब्ध है.
आंकड़े दर्शाते हैं कि 2016-2019 में एक महीने की इंसुलिन की क़ीमत घाना में मरीज़ के मासिक वेतन की 20 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है.