राष्ट्रविहीनों का सहारा बनने वाले वकील को सम्मान

राष्ट्रविहीनता के शिकार लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे किर्गिस्तान के एक वकील अज़ीज़बेक अशुरोफ़ को संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी के ‘2019 नेन्सेन रैफ़्यूजी अवॉर्ड’ से सम्मानित किया गया है. अशुरोफ़ ने पूर्व सोवियत संघ के विघटन के बाद 10 हज़ार राष्ट्रविहीन लोगों को किर्गिस्तान की नागरिकता दिलाने में मदद की है.
यूएन शरणार्थी एजेंसी के प्रमुख फ़िलिपो ग्रैन्डी ने मंगलवार को बताया कि, “अज़ीज़बेक अशुरोफ़ की कहानी मज़बूत निजी इरादे और दृढ़ता से परिपूर्ण है.” उनके मुताबिक़ यह एक बानगी है कि किस तरह एक व्यक्ति सामूहिक प्रयासों को प्रेरित कर सकता है.
‘नेन्सन पुरस्कार’ विजेता ने जिनीवा में पत्रकारों से बात करते हुए बताया कि 1991 में पूर्व सोवियत संघ के विघटन के बाद उनका परिवार उज़बेकिस्तान से किर्गिस्तान आ गया था लेकिन वहां की नागरिकता पाने में उनके परिवार को संघर्ष करना पड़ा.
अज़ीज़बेक अशुरोफ़ ने स्वीकार कि क़ानून में प्रशिक्षण लेने के बावजूद किर्गिस्तान का नागरिक बनने में उन्हें कई प्रशासनिक बाधाओं का सामना करना पड़ा.
“मैंने महसूस किया कि अगर मेरी शैक्षणिक पृष्ठभूमि और वकील होने के बावजूद मेरे लिए यह मुश्किल था तो कल्पना कीजिए कि एक साधारण व्यक्ति के लिए यह कितना कठिन रहा होगा.”
विस्थापितों और बिना दस्तावेज़ के रह रहे लोगों की मदद के लिए दक्षिणी किर्गिस्तान में एक एसोसिएशन की स्थापना करने के बाद उन्होंने राष्ट्रविहीनता की स्थिति को समाप्त करने वाले किर्गिज़ सरकार के प्रयसों का समर्थन किया.
No longer in limbo. No longer invisible. Our 2019 #NansenWinner is lawyer Azizbek Ashurov. Because of his work, more than 10,000 people from all corners of Kyrgyzstan are no longer stateless.#EndStatelessness https://t.co/yApgCGTR6x pic.twitter.com/rac6KhEVRA
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इन मुख्य प्रयासों के तहत बिना क़ानूनी दर्जे के रहने के लिए मजबूर लोगों पर लगाए गया जुर्माना वापस ले लिया गया था.
“अधिकांश राष्ट्रविहीन लोगों को क़ानूनी दर्जा प्राप्त नहीं है और वे अदृश्य हैं, यही कारण है कि वे सामने नहीं आना चाहते क्योंकि उन्हें देशनिकाला दे दिया जा सकता है या फिर उन पर जुर्माना लग सकता है. इसी वजह से सरकार ने आम माफ़ी के ज़रिए हमारी मदद की है.”
राष्ट्रविहीनता से निपटने के लिए एक अन्य सफल पहल मोबाइल टीमों का गठन था जिन्होंने दूरदराज़ के पर्वतीय क्षेत्रों में जाकर वंचित समूहों को ढूंढा.
अज़ीज़बेक अशुरोफ़ ने बताया कि, “हमारी मोबाइल टीमों के पास जो लोग आए, उन्हें हमने बताया कि कोई जुर्माना नहीं हैं और यह उनके लिए एक अवसर है देश में उनके दर्जे को क़ानूनी बनाने के लिए.” उन्होंने राष्ट्रविहीन लोगों की तुलना प्रेतों से करते हुए कहा कि शारीरिक रूप से उनका अस्तित्व है लेकिन काग़ज़ों पर उनका कोई रिकॉर्ड नहीं है.
किर्गिस्तान के अलावा कई अन्य देशों ने राष्ट्रविहीनता के विरुद्ध मुहिम शुरू की है जिसके बाद अब तक 34 हज़ार 500 मामलों का सफल निपटारा हो चुका है.
“राष्ट्रविहीनता के मामलों को घटाने में हमारी भूमिका के तहत हम लोगों की उन कामों में मदद करते हैं जो वे ख़ुद नहीं कर पाते. हम उन्हें नागरिकता नहीं देते, हम उन्हें एक अधिकार देते हैं जो उन्हें जन्म से मिला होना चाहिए था.”
यूएन शरणार्थी एजेंसी के अनुसार दुनिया भर में लाखों लोग देशविहीनता से पीड़ित हैं.
राष्ट्रविहीन होने की वजह से उनके पास ना तो क़ानूनी अधिकार होते हैं और ना ही बुनियादी सेवाओं तक पहुंच होती है. इस वजह से राजनैतिक और आर्थिक रूप से वे वंचित रहने के लिए मजबूर होते हैं, उनके साथ भेदभाव होता है और शोषण व उत्पीड़न का भी जोखिम झेलना पड़ता है.
वर्ष 2014 में यूएन एजेंसी ने देशविहीनता को समाप्त करने के लिए दस वर्षीय एक मुहिम शुरू की थी.
फ़िलिपो ग्रैन्डी ने बताया कि अब तक दो लाख 20 हज़ार राष्ट्रविहीन लोगों को नागरिकता प्रदान की जा चुकी है जब 15 सदस्य देशों ने उस अंतरराष्ट्रीय संधि पर अपनी मुहर लगाई जिसमें देशविहीनता पर पाबंदी लगाने की बात कही गई है.
यूएन शरणार्थी एजेंसी की ओर से ‘नेन्सेन रैफ़्यूजी अवॉर्ड’ उन लोगों को दिया जाता है जो जबरन विस्थापन के लिए मजबूर होने वाले लोगों की असाधारण ढंग से मदद करते हैं.
इस अवॉर्ड का नाम फ्रीडत्ज़ोफ़ नेन्सेन पर रखा गया है जो 1920 से 1930 तक ‘लीग ऑफ़ नेशन्स’ में शरणार्थियों के लिए पहले हाई कमिश्नर थे. पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बीच की अवधि में संयुक्त राष्ट्र की तर्ज़ पर प्रथम ‘लीग ऑफ़ नेशन्स’ का गठन किया गया था.
नेन्सेन का जन्म नॉर्वे में 1861 में हुआ और उन्हें ध्रुवीय क्षेत्रों में पर्यवेक्षण के लिए याद किया जाता है. उनके मानवीय राहत प्रयासों के फलस्वरूप साढ़े चार लाख शरणार्थी पहले विश्व युद्ध के बाद घर लौट पाए थे.
उन्हीं के प्रयासों की बदौलत कई लोगों को शरण देने वाले देशों में क़ानूनी दर्जा पाने और काम ढूंढने में भी मदद मिली.
वर्ष 1930 में 69 साल की आयु में उनकी मौत हो गई. यूएन शरणार्थी एजेंसी ने उनकी स्मृति के सम्मान में ‘नेन्सेन रैफ़्यूजी अवार्ड’ शुरू किया.