जलवायु संकल्पों को पूरा करने के कितने पास है दुनिया?

न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में सितंबर में होने वाली जलवायु शिखर वार्ता की तैयारी ज़ोरों पर है जिसे हाल के दशको में होने वाले सबसे बड़े जलवायु सम्मेलनों में माना जा रहा है. जलवायु आपात स्थिति और उससे उपजती चुनौतियों के बीच इस संकट से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर कार्रवाई भी की जा रही है, लेकिन क्या मौजूदा कार्रवाई पर्याप्त है?
जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में समन्वित प्रयासों का ख़ाका तैयार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय लगभग चार वर्ष पहले पेरिस में एकत्र हुआ था.
सम्मेलन में ये सहमति हुई कि इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को पूर्व औद्योगिक स्तर से दो डिग्री सेल्सियस से कम रखना है और अगर संभव हो तो इसे 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के भी प्रयास किए जाने हैं.
लेकिन साल 2019 में दर्ज आंकड़े दर्शाते हैं कि जुलाई महीने में तापमान इस स्तर से 1.2 डिग्री सेल्सियस ऊपर पहुंच चुका है और सबसे गर्म महीने का रिकॉर्ड तोड़ रहा है. तापमान बढ़ने का रुझान लगातार जारी है.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश का कहना है कि हम जलवायु परिवर्तन को रोकने की दौड़ में शामिल हैं, लेकिन क्या हम इस दौड़ में जीत रहे हैं?
वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को रोकने की दिशा में प्रयासों की सफलता मापने के लिए हर देश राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु कार्रवाई कार्ययोजना तैयार कर रहा है जिन्हें “Nationally Determined Contributions” (NDCs) कहा जाता है.
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता क़ानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है: यह देशों को नहीं बताता कि उन्हें कार्बन उत्सर्जन कैसे कम करना चाहिए, या फिर जलवायु सहनशीलता बढ़ाने और अनुकूलन के लिए कौन से क़दम उठाने चाहिए.
इसके बजाय सदस्य देशों को अपनी कार्ययोजना स्वयं तैयार करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है जो “NDCs” के तहत होगी.
इन कार्ययोजनाओं से यह जानने में मदद मिलती है कि कोई देश क्या क़दम उठा रहा है और कार्बन उत्सर्जन को कितना कम करने के लिए तैयार है.
पेरिस समझौते में यह स्वीकार किया गया है कि विकासशील देशों के पास अक्सर संसाधनों, वित्तीय साधनों और तकनीकों का अभाव होता है. ऐसे में उन्हें अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मदद मुहैया कराए जाने का भी प्रावधान रखा गया है.
देशों के पास पेरिस समझौते के लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए कई विकल्प मौजूद हैं. इसके लिए क़ानून बनाने, वित्तीय प्रोत्साहन देने और ऐसी टैक्स नीतियों को बढ़ावा दिया जा सकता है जिससे उत्सर्जन में कमी लाई जा सके.
उदाहरण के तौर पर, टैक्स के ज़रिए कार्बन की एक क़ीमत तय की जा सकती है या फिर कार्बन ट्रेडिंग प्रणाली को भी स्थापित किया जा सकता है.
अगर लोगों को यह मालूम हो कि कार्बन प्रदूषण की वास्तविक क़ीमत क्या है तो वे उन क्षेत्रों और ईंधनों में निवेश करेंगे जो कम ख़र्चीले हों. आम नागरिकों के लिए इसका मतलब प्रदूषण ना फैलाने वाली कारें ख़रीदने, या मकानों को ठंडा करने वाले यंत्रों के इस्तेमाल से है.
इसके ज़रिए उन क्षेत्रों में विकास को नियमित बनाने में मदद मिलेगी जहां जलवायु परिवर्तन के ज़्यादा प्रभावों की आशंका है. जैसेकि तटीय इलाक़ों में जहां समुद्री जलस्तर बढ़ रहा हो.
पेरिस समझौते के अंतर्गत सभी देशों को हर कुछ वर्षों के बाद अपनी जलवायु कार्ययोजनाओं को और ज़्यादा महत्वाकांक्षी बनाना होगा.
इसके ज़रिए यह मानने का प्रयास होगा कि शुरुआती सालों में किए गए प्रयासों से कहीं आगे बढ़कर साल दर साल जलवायु कार्रवाई की गई ताकि पेरिस समझौते के लक्ष्य को पूरा किया जा सके.
सभी देशों को वर्ष 2020 तक अपनी महत्वाकांक्षी जलवायु कार्ययोजनाओं को सौंपना है और बढ़ी हुई महत्वाकांक्षा के साथ आगे बढ़ने का समय यही है.
इसी उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र सितंबर में न्यूयॉर्क में एक जलवायु शिखर वार्ता का आयोजना भी कर रहा है.
नहीं! विश्व भर में हम जलवायु कार्रवाई होते देख रहे हैं और नवीकरणीय ऊर्जा के मामले में दुनिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है.
मोरक्को और संयुक्त अरब अमीरात में विशाल सौर ऊर्जा प्लांट बनाए जा रहे हैं, पुर्तगाल में अब ज़रूरत की अधिकांश ऊर्जा नवीकरणीय स्रोतों से मिलती है और बहुत से देश अब यही हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं.
नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश अब जीवाश्म ईंधन में निवेश को पीछे छोड़ रहा है, ख़ासकर विकासशील देशों में, और कई देशों और क्षेत्रों में ‘कार्बन प्राइसिंग’ भी लागू किया गया है.
लेकिन यह भी जानना आवश्यक है कि जितनी तेज़ी से क़दम बढ़ाए जाने चाहिए उतनी तेज़ी से काम नहीं हो रहा है: वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन बढ़ रहा है और उसके साथ तापमान में भी वृद्धि हो रही है.
अभी कोई क्षेत्र स्पष्ट तौर पर अन्य को पीछे छोड़ता नहीं दिख रहा है लेकिन कुछ देश और शहर ऐसे हैं जो बड़ी प्रगति हासिल करते दिख रहे हैं.
बहुत से देश, जिनमें पैसिफ़िक द्वीपिय देश भी शामिल हैं, ऐसे हैं जो कार्बन न्यूट्रैलिटी का लक्ष्य हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं – यानी उनका नैट कार्बन उत्सर्जन शून्य होगा.
इसका अर्थ है कि ये देश अपने कार्बन उत्सर्जन में संतुलन साधने में कामयाब हो जाएंगे. यानी जितना कार्बन उत्सर्जन उनके उद्योगों या कारों के इस्तेमाल से होगा, कार्बन की उतनी ही मात्रा वे वातावरण से हटाने में सफल होंगे जिसे ज़्यादा पेड़ लगाकर और अन्य तकनीक अपनाकर हासिल किया जा सकता है.
यह एक विडंबना है कि जलवायु परिवर्तन से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले देशों ने इस समस्या में सबसे कम योगदान दिया है.
जलवायु कार्रवाई के लिए निवेश की आवश्यकता होती है और उसे प्रोत्साहन अनुकूल सरकारी नीतियों से मिलता है.
पुर्तगाल सहित कई अन्य देशों ने नवीकरणीय ऊर्जा में बड़े पैमाने पर निवेश किया है जिनमें चिली, आयरलैंड, केनया और कोस्टारिका शामिल हैं.
साथ ही कई यूरोपीय देशों ने अपने कार्बन उत्सर्जन घटाने में उल्लेखनीय प्रगति दर्ज की है.
हमें और अधिक राजनैतिक नेतृत्व और राजनैतिक इच्छाशक्ति दिखाने की आवश्यकता है. अगर पहले की तरह काम होता रहा तो उसके गंभीर नतीजे भुगतने होंगे और इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में वृद्धि बढ़कर तीन डिग्री सेल्सियस या उससे भी ज़्यादा पहुंच जाएगी.
सरकारों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को निडर नेतृत्व दिखाना होगा और जलवायु कार्रवाई को आगे बढ़ाने के लिए यह परम आवश्यक है.
आम जनता की भी अहम भूमिका है: उपभोक्ताओं के व्यवहार और आदतों में बदलाव लाकर कम कार्बन उत्सर्जन पर आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया जा सकता है.
इसी उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र ने #ActNow मुहिम शुरू की है जिसमें रोज़मर्रा से जुड़े जीवन में छोटे प्रयासों से बदलाव का प्रयास हो रहा है.
हां. जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हमारे पास समाधान मौजूद हैं लेकिन हमें उन्हें उपयोग में लाना होगा और प्रदूषण फैलाने वाली अर्थव्यवस्था के बजाय हरित अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाना होगा.
इसके लिए ज़रूरी धन उपलब्ध है. हमारे पास तकनीक है, जिसे अब सभी देशों में सभी लोगों के लिए सुलभ बनाना है.
लेकिन यह कार्रवाई हमें अभी करनी होगी. तापमान में थोड़ा सा बदलाव भी मायने रखता है और अगर हम लंबे समय तक इंतज़ार करते हैं तो उसके उतने ही ज़्यादा दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे.