जलवायु परिवर्तन के असाधारण प्रभाव से खाद्य सुरक्षा पर मंडराता ख़तरा
विश्व में 50 करोड़ लोग ऐसे क्षेत्रों में रह रहे हैं जहां जलवायु परिवर्तन की वजह से पर्यावरण क्षरण हो रहा है जिससे वहां जीवन प्रभावित हो रहा है. संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक नई रिपोर्ट में चेतावनी जारी करते हुए सभी देशों से अपील की है कि भूमि के टिकाऊ इस्तेमाल के लिए संकल्प लिए जाने चाहिए ताकि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को सीमित किया जा सके, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए.
‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी)’ के विशेषज्ञों ने जलवायु परिवर्तन और भूमि के विषय पर गुरूवार को जिनीवा में नई रिपोर्ट पेश करते हुए बताया कि भूमि की उर्वरा शक्ति प्रभावित होने से दुनिया के सामने खाद्य संकट खड़ा होने का ख़तरा मंडरा रहा है.
1,200 पन्नों की इस रिपोर्ट को तैयार करने में तीन वर्किंग ग्रुप ने मिलकर काम किया है. इनमें से एक वर्किंग ग्रुप की सह-प्रमुख वेलेरी मैसोन-डेलमोट का कहना है कि मानवीय गतिविधियों से पृथ्वी के कुल हिम मुक्त क्षेत्र का 70 फ़ीसदी हिस्सा प्रभावित होता है. उसमें भी एक चौथाई का क्षरण हो चुका है.
उन्होंने पत्रकारों से कहा, “आज 50 करोड़ लोग ऐसे क्षेत्रों में रह रहे हैं जहाँ मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है...पहले से ही बंजर हो चुके या भूमि क्षरण का शिकार क्षेत्रों में लोगों पर जलवायु परिवर्तन का नकारात्मक असर बढ़ रहा है.”
डॉक्टर मैसोन-डेलमोट का कहना है कि भूमि की गुणवत्ता ख़राब होने से उसकी कार्बन सोखने की क्षमता भी प्रभावित होती है.
हाल ही में जारी कुछ रिपोर्टें दर्शाती हैं कि विश्व में 82 करोड़ से ज़्यादा लोग अल्पपोषण का शिकार हैं.
अनुमान है कि भोजन उत्पादन के बाद उसका क़रीब 30 फ़ीसदी हिस्सा बर्बाद हो जाता है और यह एक बड़ी समस्या है.
विशेषज्ञों का कहना है कि भविष्य में देशों को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने के लिए सभी विकल्पों पर विचार करना होगा और इन विकल्पों में पेड़-पौधों से मिलने वाले खाने और जैव ईंधन (बायो फ़्यूल) को बढ़ावा देना भी शामिल है.
एक अन्य वर्किंग ग्रुप के सह-प्रमुख डॉक्टर जिम स्कीए ने कहा, "वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए वातावरण से कार्बन डाइ ऑक्साइड को हटाना होगा और उसमें भूमि की एक महत्वपूर्ण भूमिका है."
भूमि के इस्तेमाल पर नई रिसर्च को प्रस्तुत करती इस रिपोर्ट को 50 देशों के 107 वैज्ञानिकों ने तैयार किया है और इस टीम में आधे से ज़्यादा वैज्ञानिक विकासशील देशों से हैं.
आईपीसीसी रिपोर्ट के अनुसार कृषि, वानिकी और भूमि का अन्य कारणों से इस्तेमाल ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में लगभग एक चौथाई उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार है.
रिपोर्ट में अनुरोध किया गया है कि जलवायु परिवर्तन अनुकूलीकरण और कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए रणनीति तैयार करते समय नीति-निर्माताओं को इस तथ्य पर विचार करना चाहिए.
वर्किंग ग्रुप में शामिल डॉक्टर डेब्राह रॉबर्ट्स ने कहा, "तापमान में बढ़ोत्तरी को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए सभी सेक्टरों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन घटाना ज़रूरी है."
त्वरित कार्रवाई से स्थिति में सुधार संभव
बताया गया है कि गर्म होती पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए रास्ते तलाश करते समय ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि अनुकूलीकरण की क्षमता सीमित है.
इसलिए अनुकूलीकरण के साथ-साथ कार्बन उत्सर्जन घटाने की रणनीतियों पर काम करना भी ज़रूरी है.
कुछ अनुमानों के अनुसार वर्ष 2050 तक विश्व आबादी बढ़कर 10 अरब होने की संभावना जताई गई है और इसीलिए सकारात्मक क़दम तत्काल उठाने की आवश्यकता पर बल दिया गया है.
ये रिपोर्ट 195 सदस्य देशों द्वारा समीक्षा और उनकी मंज़ूरी मिलने के बाद ही गुरुवार को जारी की गई.
जलवायु परिवर्तन और भूमि पर इस रिपोर्ट के बाद आईपीसीसी की योजना अगले महीने एक और रिपोर्ट जारी करने की है जिसमें महासागर और जलवायु परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने जलवायु कार्रवाई के लिए महत्वाकांक्षा बढ़ाने के उद्देश्य से 23 सिंतबर 2019 को एक शिखर वार्ता का आयोजन किया है और दूसरी रिपोर्ट उससे ठीक पहले प्रकाशित की जाएगी.
आईपीसीसी का गठन संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) ने 1988 में किया था जिसके ज़रिए नीति-निर्माताओं तक जलवायु परिवर्तन के संबंध में वैज्ञानिक समझ और समीक्षा को प्रस्तुत करना था.
आईपीसीसी अपनी रिपोर्टों के ज़रिए जलवायु परिवर्तन के ख़तरों के बारे में आगाह करती है और इस चुनौती से निपटने के लिए अनुकूलीकरण और कार्बन उत्सर्जन घटाने की रणनीतियां साझा करती है.