संघर्ष और हिंसक चरमपंथ की रोकथाम के लिए सांस्कृतिक संवाद ज़रूरी
दुनिया भर में उपासना स्थलों पर नफ़रत से प्रेरित हमलों पर चिंता जताते हुए एलायंस ऑफ सिविलाइज़ेशन्स (UNAOC) के उच्च प्रतिनिधि मिगेल एन्गेल मोराटिनोस ने कहा है कि वह भारी मन से अज़रबेजान की राजधानी बाकू में वार्षिक फ़ॉरम का उद्घाटन कर रहे हैं. इस मंच से मानवीय एकजुटता कायम करने और हिंसा की रोकथाम करने के लिए सांस्कृतिक संवाद को बढ़ावा दिया जाता है.
नफ़रत भरे अपराधों और आतंकी हमलों के ज़रिए उपासना स्थलों को निशाना बनाए जाने के मामलों की बढ़ती संख्या पर मोराटिनोस ने चिंता जताई. उन्होंने कहा कि यह ध्यान दिलाता है कि “कोई भी धर्म, देश या जातीय समुदाय” बयान न की सकने वाली इस हिंसा से अछूता नहीं है. पिछले हफ़्ते ही शनिवार को कैलिफ़ोर्निया के यहूदी उपासना स्थल (सिनेगॉग) में हमला हुआ है और पिछले साल पिट्सबर्ग के सिनेगॉग में गोलीबारी की घटना हुई थी. मोराटिनोस ने बताया कि इसी तरह का हमला फ़िलीपीन्स में एक गिरजाघर पर हुए और उससे पहले न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च की मस्जिदों में नमाज़ पढ़ रहे लोगों पर अंधाधुंध गोलीबारी की गई थी. “इन सभी जघन्य और कायरना हमलों में...हम एक पैटर्न देखते हैं: दूसरे के प्रति नफ़रत का भाव. ये अपराधी पूरे पंथ समुदायों को हाईजैक कर रहे हैं और धर्मों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ भड़का रहे हैं.” लेकिन समस्या कभी भी पंथ नहीं है. समस्या उन्होंने पैदा की हैं जो “श्रृद्धालुओं को भटकाते हैं और पवित्र ग्रंथों की विकृत व्याख्याओं के ज़रिए लोगों में टकराव पैदा करते हैं.”
आग में घी डालता है सोशल मीडिया
मोराटिनोस का मानना है कि सोशल मीडिया चैनल इस नफ़रत की आग को और भड़काने का काम कर रहे हैं. अपनी विकृत विचारधारों को आगे बढ़ाने के लिए चरमपंथी, श्वेत वर्चस्ववादी और धुर-दक्षिणपंथी ताक़तें डार्क वेब का भी सहारा ले रही हैं. उन्होंने कहा कि हिंसक चरमपंथ की रोकथाम और टिकाऊ शांति को सुनिश्चित करना एक दूसरे के पूरक लक्ष्य हैं जिससे आपसी मज़बूती मिलती है. “संघर्ष की रोकथाम करने और हिंसक चरमपंथ को रोकने में संवाद कायम करने की अहमियत को और बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया जा सकता.”अपने शुरुआती संबोधन में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) में सामाजिक और मानव विज्ञान की अवर महानिदेशक नदा अल-नशीफ़ ने अंतरसांस्कृतिक संवाद और आपसी समझ को बढ़ावा देने की अहमियत पर बल दिया.
‘बाकू प्रक्रिया’ की शुरुआत अज़रबेजान द्वारा 10 साल पहले की गई थी जिसका उद्देश्य सभ्यताओं और संस्कृतियों के बीच प्रभावी और दक्ष संवाद स्थापित करना था. नदा अल-नशीफ़ ने स्पष्ट किया कि इस कार्य में लंबा रास्ता तय किया गया है लेकिन निरंतरता बनाए रखने और प्रभाव कायम करने के लिए ठोस कार्रवाई और केंद्रित प्रयास करने की आवश्यकता है.
एक ऐसे समय जब लोकप्रियवाद से सांस्कृतिक बहुलता के लिए ख़तरा पैदा हो रहा है, दुनिया को सबसे बड़े शरणार्थी और विस्थापन संकट का सामना करना पड़ रहा है. इन चुनौतियों का सामना करने के लिए उन्होंने समावेशी समाजों के निर्माण की ज़रूरत को रेखांकित किया और इसे 2030 टिकाऊ विकास एजेंडे के नज़रिए से भी अहम बताया.