
वैश्विक स्तर पर भारत को एक विविधतापूर्ण देश माना जाता है. विश्व भर में दर्ज लगभग 8% जैव विविधता और दुनियाभर के 36 जैव विविधता वाले प्रमुख ठिकानों (Hotspot)) में से चार, भारत की भूमि पर पाए जाते हैं.
वैश्विक स्तर पर भारत को एक विविधतापूर्ण देश माना जाता है. विश्व भर में दर्ज लगभग 8% जैव विविधता और दुनियाभर के 36 जैव विविधता वाले प्रमुख ठिकानों (Hotspot)) में से चार, भारत की भूमि पर पाए जाते हैं.

भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम प्रदेश शामिल हैं. इस क्षेत्र में देश की कुल जैव विविधता का 30% से अधिक भाग वास करता है, जिसमें उच्च स्तर की स्थानिकता वाले वनस्पति और जीव शामिल हैं.
यह क्षेत्र, दुर्लभ पौधों, जानवरों और सूक्ष्मजीवों का एक आनुवंशिक ख़ज़ाना है, जिसमें कई लुप्तप्राय और संकटग्रस्त प्रजातियाँ शामिल हैं. इस क्षेत्र में भारत के 50% फूलदार पौधे (जिनमें से 31.58% स्थानिक हैं), भारतीय ऑर्किड्स की 57% से अधिक, और भारत की 150 बाँस प्रजातियों में से 42% पाई जाती हैं.

समृद्ध प्रकृति व संस्कृति
यह क्षेत्र लगभग 220 आदिवासी समुदायों का घर भी है, जिनकी संस्कृति व परम्पराएँ प्रकृति के साथ उनके सामंजस्यपूर्ण सम्बन्धों को दर्शाती हैं. 1900 के दशक से स्थानीय सरकार, आदिवासी पहचान, संस्कृति, और पारम्परिक प्रथाओं का संरक्षण सुनिश्चित करती रही है. पारम्परिक ज्ञान और स्थानीय विशेषज्ञता, जैव विविधता संरक्षण और जलवायु परिवर्तन प्रभावों के अनुकूलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं.

विविध ख़तरे, एक समन्वित प्रतिक्रिया
पिछले दशक में, भारत का पूर्वोत्तर, बहुत तेज़ी से बारम्बार, अभूतपूर्व चरम मौसम की घटनाओं से प्रभावित हुआ है. जलवायु परिवर्तन के इस प्रभाव से, आदिवासी लोगों और जातीय समुदायों की आजीविका ख़तरे में पड़ गई है, और निर्धनता, सरकारी सेवाओं व शिक्षा तक पहुँच की कमी, और सीमित फ़सल बीमा जैसे कारणों से कमज़ोर हालात में बढ़ोत्तरी हुई है.
वहीं, रोज़गार की तलाश में बढ़ते शहरीकरण, पारम्परिक कृषि प्रथाओं का त्याग, और अन्तर-पीढ़ीगत ज्ञान हस्तान्तरण की कमी, कभी आत्मनिर्भर रहे इन समुदायों के लिए समस्या बनते जा रहे हैं. जैव-सांस्कृतिक विरासत का क्षरण और पर्यावरणीय क्षरण अब इस क्षेत्र में प्रमुख ख़तरा बनकर उभरा है.

समुदायों का सशक्तिकरण
स्थानीय लोगों व समुदायों द्वारा संरक्षित क्षेत्रों के लिए, UNDP की वैश्विक समर्थन पहल (ICCA-GSI COVID-19 Response Initiative) के तहत, पूर्वोत्तर भारत जैव-सांस्कृतिक पहल (NEBI) लागू की गई है ताकि पारम्परिक ज्ञान पुनर्जीवित करने व इकोसिस्टम-आधारित समाधानों को बढ़ावा देने के लिए, स्थानीय कमज़ोर हालात वाले एवं जातीय समुदायों को सशक्त बनाया जा सके.
अपनी जड़ों में वापस जाकर आत्मनिर्भरता
अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय और नागालैंड प्रदेशों में नौ परियोजनाएँ लागू की गईं, जिनमें लगभग 2,500 हैक्टेयर भूमि और लगभग एक लाख स्थानीय लोगों व समुदाय के सदस्यों का घर शामिल हैं.

भविष्य के लिए खाद्य सम्प्रभुता
समुदायों द्वारा स्वयं पहचानी गई प्राथमिकताओं के आधार पर, समुदाय-आधारित संरक्षण मॉडल विकसित किए गए. इनमें कृषि-जैव विविधता और कृषि-वनस्पति योजनाएँ, इको-पर्यटन, और स्वास्थ्य सेवा, कृषि, पशुपालन एवं मत्स्य पालन प्रबन्धन के क्षेत्रों में पारम्परिक प्रथाएँ, फिर से शुरू की गईं, ताकि खाद्य उत्पादन और आजीविका में स्थाई सुधार लाया जा सके.
पारम्परिक ज्ञान का प्रलेखन करके संरक्षित किया गया और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान का हस्तान्तरण के लिए प्रशिक्षण दिया गया.

इसके परिणामस्वरूप, 316 किसानों और 1,065 परिवारों ने स्थाई पर्यावरणीय प्रथाओं को अपनाया, और एक जैव-परिपत्र अर्थव्यवस्था बनाने में कामयाबी हासिल हुई.
इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न परिवर्तनशीलता से निपटने, खाद्य सुरक्षा मज़बूत करने और स्थानीय खाद्य सम्प्रभुता में सुधार करने के लिए, जलवायु-सहनसक्षम बीजों की क़िस्मों के संरक्षण हेतु, तीन सामुदायिक बीज बैंकों का भी विकास किया गया.

पारम्परिक अपतानी धान एवं मात्स्यिकी की पुनर्बहाली
अरुणाचल प्रदेश में स्थित ज़ीरो घाटी में अपतानी जनजाति के लगभग 60 हज़ार सदस्य रहते हैं. यह घाटी एक अनोखे कटोरेनुमा आकार की है, जिसमें विशाल धान के खेत (स्थानीय रूप से 'अजी' के रूप में जाने जाने वाले) बस्तियों के बीच, समतल घाटी के तल पर फैले नज़र आते हैं.

परम्पराओं को पुनर्जीवन
अपतानी जनजाति एक प्रगतिशील कृषि समुदाय है, और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के पारम्परिक पारिस्थितिक ज्ञान के साथ, भूमि के व्यापक उपयोग के उपायों का भी इस्तेमाल करती है. अजी की खेती में धान व बाजरे के खेतों के साथ मछली पालन किया जाता है, और हर एक प्लॉट को अलग करती मेढ़ों के पास रोपा जाता है. यह प्रथा उत्तर-पूर्व क्षेत्र में सबसे अधिक उत्पादक व कुशल कृषि प्रणालियों में से एक मानी जाती है.

पारम्परिक धान की क़िस्मों की देखभाल करने वाले लोग, सावधानीपूर्वक चुने गए अनाज की विशेषताओं, पोषक तत्वों की क़िस्मों, उपज व रोगों एवं कीटों के प्रतिरोध के आधार पर धान की खेती करते हैं. इस प्रणाली में न तो भार ढोने वाले जानवरों और न ही मशीनों की आवश्यकता होती है. यह केवल मज़बूत सहकारी, सामुदायिक प्रयासों पर निर्भर करती है. अपतानी जनजाति ने इस सन्तुलित, समग्र प्रणाली का सावधानी से उपयोग करके, महामारी या अकाल के समय में भी आत्मनिर्भरता हासिल की है.

हालाँकि, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और शहरीकरण से किसान इस ग्रामीण घाटी से दूर होते जा रहे हैं, जिससे उनके धान के खेत खाली होने लगे हैं और ज़ीरो घाटी में चावल का उत्पादन कम हो गया है.
इस पृष्ठभूमि में, पारम्परिक धान एवं मात्स्यिकी प्रणाली को फिर से जीवन्त करने की आवश्यकता स्पष्ट थी. मछलियों की हैचरी स्थापित की गई ताकि पूरे साल उत्पादन रहे, और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से पारम्परिक फ़सल और चावल की किस्मों की रक्षा के लिए, सामुदायिक बीज बैंक बनाए गए.

चावल की फ़सल का उत्पादन बढ़ाने के लिए, पारम्परिक सिंचाई प्रणालियों का उपयोग करने वाली कृषि-वानिकी शुरू की गई. फलों के पेड़ों,लुप्तप्राय स्थानीय फ़सलों (बाजरा, दाल और मिर्च की पुरानी क़िस्में) व चावल की किस्मों की बहुस्तरीय खेती से एक आपस में जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया. इसमें सूरज की रोशनी, पोषण व जल के ज़रिए उत्पादकता बढ़ाई गई.
स्थानीय किसान व पुजारी नारन यामयांग कहते हैं, “अपतानी में एक कहावत है – ‘हमारे घर गन्दे हो सकते हैं, लेकिन हमारे खेत नहीं.’ इस क्षेत्र में धान के कई खेत खाली पड़े हैं. उन्हें बंजर होने से रोकने के लिए हम ग्रास कार्प मछली का पालन कर रहे हैं. वे इन ज़मीनों में मौजूद प्राकृतिक हरियाली को भोजन बनाती हैं और हम उन्हें चावल के साथ बेचकर अपनी आमदनी में सुधार कर सकते हैं.”

इस पहल के बाद, समुदायों के बीच पारम्परिक धान-मात्स्यिकी प्रणाली के महत्व को लेकर जागरूकता बहुत बढ़ गई है,.
होंग नीति जैव विविधता प्रबंधन समिति की अध्यक्ष, मुदंग चल्ल्यांग ने बताया, "हालाँकि यह (समुदाय-आधारित) परियोजना अपेक्षाकृत छोटी थी, लेकिन इसका प्रभाव बहुत विशाल रहा. खेती से होने वाली आमदनी पर्याप्त नहीं थी. इसलिए मत्स्य पालन व बिक्री से हमारी आजीविका में काफ़ी मदद मिली है. मुझे लगता है कि इसका विस्तार करके उन जगहों पर लागू किया जाना चाहिए, जहाँ किसान इससे अनभिज्ञ हैं, ताकि वो भी हमारी तरह इसका लाभ उठा सकें."

प्रभावी क्षेत्र, प्रभावी संरक्षण
भारत में यूएनडीपी के अन्य प्रभावी क्षेत्र-आधारित संरक्षण उपायों (OECMs) पर अग्रणी कार्य के साथ-साथ, ज़ीरो घाटी को भी एक सम्भावित OECM के रूप में पहचाना गया है.
यह राष्ट्रीय मान्यता, ज़ीरो घाटी में अद्वितीय भूमि उपयोग प्रणालियों और जैविक विविधता के समृद्ध परिदृश्यों के कारण मिली है. इसमें अपतानियों द्वारा पर्यावरण के साथ तालमेल बैठाकर जीवन जीने की कला का मेल स्पष्ट होता है, जिससे क्षेत्र में खाद्य एवं आजीविका सुरक्षा में सुधार व सतत विकास सम्भव हुआ है.

लोगों व ग्रह का भविष्य
स्थानीय संरक्षण प्रथाओं और पारम्परिक ज्ञान को मान्यता देकर, अन्य संरक्षित क्षेत्रों की राष्ट्रीय योजनाओं में उन्हें एकीकृत करने, और जैव विविधता की हानि रोकने के लिए एक आशाजनक दृष्टिकोण प्रदान करता है. यह प्रणाली, सरकारों व गैर-सरकारी पक्षों के लिए वैश्विक जैव विविधता ढाँचे के लक्ष्य 3, 21 और 22 को हासिल करने का रास्ता प्रशस्त करती है.
ICCA-GSI एक बहु-साझेदारी पहल है जो यूएनडीपी द्वारा कार्यान्वित Small Grants कार्यक्रम द्वारा लागू की जाती है और जर्मनी सरकार द्वारा वित्तपोषित है. इसके प्रमुख भागीदारों में जैविक विविधता कन्वेंशन (CBD), प्राकृतिक संरक्षण के लिए अन्तरराष्ट्रीय संघ के संरक्षित क्षेत्रों पर वैश्विक कार्यक्रम (IUCN GPAP), संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के विश्व संरक्षण निगरानी केंद्र (UNEP WCMC), और ICCA Consortium शामिल हैं.