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भारत: ‘दीदी की रसोई’ – एक अनूठा ग्रामीण महिला उद्यम

केरल प्रदेश के कैफे कुदुम्बश्री मॉडल से प्रेरित, दीदी की रसोई की शुरुआत 2018 में हुई.
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केरल प्रदेश के कैफे कुदुम्बश्री मॉडल से प्रेरित, दीदी की रसोई की शुरुआत 2018 में हुई.

भारत: ‘दीदी की रसोई’ – एक अनूठा ग्रामीण महिला उद्यम

महिलाएँ

भारत के बिहार प्रदेश में, वर्ष 2018 में विश्व बैंक समर्थित बिहार परिवर्तनकारी विकास परियोजना (BTDP) के हिस्से के रूप में, ‘दीदी की रसोई’ परियोजना शुरू की गई थी. ‘जीविका’ नामक संस्था द्वारा संचालित इस परियोजना का मक़सद राज्य के समस्त ज़िला एवं ब्लॉक अस्पतालों में खाद्य सेवा काउंटर स्थापित करना है. वर्तमान में, इस परियोजना के तहत, बिहार के सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों, स्कूलों, बैंकों और अन्य संस्थानों में ऐसे 83 से अधिक उद्यम चल रहे हैं, जिनमें 1,200 से अधिक महिला उद्यमी और 150 पूर्णकालिक कर्मचारी कार्यरत हैं.

भारत के पूर्वी प्रदेश बिहार में बाघमनझुआ गाँव में लीला देवी, सुबह मुँह अन्धेरे ही जाग जाती हैं. जैसे ही सूरज उगता है, वह अपने परिवार के लिए नाश्ता व दोपहर का भोजन बनाने और अपने तीन बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने में जुट जाती हैं. उनका पूरा दिन बहुत व्यस्त रहने वाला है क्योंकि उन्हें अपने घर से सात किलोमीटर दूर भोजपुर ज़िले के कोइलवर मानसिक आश्रय अस्पताल पहुँचना है, जहाँ वो ‘दीदी की रसोई’ में काम करती हैं.

घर से पारम्परिक साड़ी पहनकर आईं लीला देवी, अस्पताल पहुँचकर साड़ी के ऊपर एक सफ़ेद कोट पहन लेती हैं, और सिर पर एक सुरक्षात्मक पारदर्शी टोपी लगाती हैं. फिर वह अपने भूरे रंग के ऐप्रिन को ठीक करके काम में जुट जाती हैं. रसोई में उनका काम सुबह 6.30 बजे शुरू होता है. वो दिन का मैन्यू देखकर, अस्पताल के मरीज़ों और कर्मचारियों के लिए नाश्ता व दोपहर का भोजन बनाने की तैयारी शुरू कर देती हैं.

लीला देवी बताती हैं, “मेरे पति किराने की एक दुकान में काम करते हैं, लेकिन केवल उनके वेतन से पूरे परिवार का भरण-पोषण करना आसान नहीं था. 2022 में, जब मेरे गाँव के स्वयं सहायता समूह के एक व्यक्ति ने मुझे 'दीदी की रसोई' के बारे में बताया, तो मैं पहले तो हिचकिचाई. मुझे कैंटीन या रेस्तराँ में या ग्राहकों के साथ काम करने का कोई अनुभव नहीं था. लेकिन जब परिवार का सहयोग मिला तो मैंने सोचा कि मैं इसे मौक़े को आज़माऊंगी.”

लीला देवी दूसरी महिलाओं के साथ दीदी की रसोई और कैंटीन में काम करती हैं, जहाँ हर रोज़ 250 से अधिक लोग खाना खाते हैं. इस कैंटीन को 26 महिलाएँ सम्भालती हैं, जो दो पारी में काम करती हैं और अस्पताल के मरीजों, परिचारकों, कर्मचारियों और वहां आने वाले ग्राहकों के लिए खाना बनाती हैं.

वह मुस्कुराते हुए बताती हैं, "दीदी की रसोई में काम करने से पहले मैं एक साधारण महिला थी; मेरी अपनी कोई पहचान या कोई ख़ास बात नहीं थी. दीदी की रसोई ने मुझे आत्म-सम्मान की भावना दी है.  मुझे अब अपने पति से पैसे मांगने नहीं पड़ते." लीला देवी, जिन्होंने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की है, अब हर महीने इस नौकरी की बदौलत 8,000-10,000 रुपये कमाती हैं.

जिला अस्पतालों की दीदी की रसोइयों में रोज़ाना क़रीब 350 लोग आते हैं, और 15 प्रतिशत शुद्ध लाभ के साथ महीने में औसतन 2.5 लाख रुपए की आमदनी होती है.
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उद्यम की स्थापना

केरल प्रदेश के कैफे कुदुम्बश्री मॉडल से प्रेरित, दीदी की रसोई की शुरुआत 2018 में हुई.  इसकी  पहल  वर्ल्ड  बैंक द्वारा समर्थित बिहार ट्रांसफॉर्मेटिव डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में की गई थी और इसका कार्यन्वयय  बिहार रूरल लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी (जिसे जीविका के नाम से भी जाना जाता है) द्वारा किया जा रहा है.

इसका उद्देश्य है की राज्य के सभी जिला और ब्लॉक अस्पतालों में भोजन केंद्रों को स्थापित और संचालित किया जा सके।  बिहार के वैशाली में सबसे पहला केंद्र खोला गया. उसके बाद इस पहल का प्रसार करते हुए बिहार के सभी 38 जिलों में ऐसे केंद्रों की स्थापना की गई.  वर्तमान में, बिहार के सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों, स्कूलों, बैंकों एवं अन्य संस्थानों में ऐसे 83 से ज्यादा केंद्र संचालित किए जा रहे हैं।  करीब 1200 से अधिक महिला उद्यमी और 150 पूर्णकालिक कर्मचारी इन केंद्रों से जुड़े हुए हैं, और इन्हे होटल प्रबंधन और खानपान में अनुभवी करीब 20 सलाहकारों का भी सहयोग मिल रहा है.

‘जीविका’ इस उद्यम को स्थापित करने के लिए शुरुआती पूँजी प्रदान करती है, और क्लस्टर लेवल फेडरेशंस (सीएलएफ) उपकरणों और बर्तनों की ख़रीद में मदद करते हैं. सीएलएफ स्थानीय स्वयं-सहायता समूहों की मदद से महिलाओं का चुनाव करते हैं, जिन्हें 7 दिन के प्रशिक्षण कार्यक्रम के ज़रिए स्वच्छता, बहीखाता और ग्राहक सेवा जैसे तकनीकी और प्रबंधकीय पहलुओं को सम्भालने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है.

सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों, स्कूलों, बैंकों और अन्य संस्थानों में लोगों को "घर का बना" भोजन मिलता है जो सस्ता, पौष्टिक और स्वादिष्ट होता है.  यहाँ नाश्ते में अंडे, फल और दूध; लंच और डिनर में चावल, रोटी, दाल, मौसमी सब्जियाँ; और शाम के नाश्ते में चाय और बिस्कुट दिया जाता है. कैंटीन के ग्राहकों के लिए खाने के मैन्यू को थोड़ा लोकलुभावन रखा गया है, जिसमें लिट्टी और कचौड़ी जैसे स्थानीय व्यंजन शामिल हैं. ज़्यादातर कच्चा माल स्थानीय किसानों और जीविका से जुड़े उत्पादक समूहों से ख़रीदा जाता है.

अपने अस्पताल में दीदी की रसोई की स्थापना करने वाले, बक्सर ज़िला अस्पताल के सिविल सर्जन, डॉक्टर जितेन्द्र नाथ का कहना है कि उन्हें इस उपलब्धि पर गर्व है.  "हमने समय पर दीदी की रसोई को स्थापित करवाया और हम मरीजों और ग्राहकों के फीडबैक से बेहद खुश हैं.  महिलाएँ (या दीदी) ही इस उद्यम की जान हैं, जिनकी बदौलत घर से दूर रहकर भी घर के खाने का स्वाद मिल रहा है."

ज़िला अस्पतालों की दीदी की रसोइयों में रोज़ाना क़रीब 350 लोग आते हैं, और 15 प्रतिशत शुद्ध लाभ के साथ महीने में औसतन 2.5 लाख रुपए की आमदनी होती है.

बत्तीस वर्षीय प्रियंका देवी, बिहार के बक्सर ज़िला अस्पताल से लगभग 10 किलोमीटर दूर पंडितपुर गाँव में रहती हैं. वह 2019 से अस्पताल में दीदी की रसोई में काम कर रही हैं और उन्हें खुशी है कि वह इस उद्यम से होने वाली अपनी आमदनी से अपने तीन बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च उठा रही हैं.

वो बताती हैं, “जब मैंने रसोई में काम करना शुरू किया तो इतनी बड़ी मात्रा में भोजन बनाने को लेकर घबराई हुई थी. हम पाँच लोगों का एक छोटा परिवार हैं, और मुझे इतनी बड़ी मात्रा में खाना पकाने की आदत नहीं थी. लेकिन समय के साथ, और अन्य दीदियों के प्रोत्साहन से, मैं जल्दी ही सब सीख गई. अब, दिन में तीन बार, (एक बार में 250 से अधिक लोगों को) भोजन परोसने वाली कैंटीन में खाना बनाना और प्रबन्धन करना आसान लगता है और मुझे इसमें बहुत आनन्द आता है.”

भविष्य की राह

प्रियंका देवी को दीदी की रसोई में काम करते हुए उनके गाँव से बाहर अलग-अलग शहरों और राज्यों का दौरा करने के लिए भी ले जाया गया है. जब वह पहली बार समीपवर्ती राज्य ओडिशा के सरस मेले में भोजन की दुकान लगाने गईं, तो बहुत डरी हुई थीं क्योंकि इससे पहले उन्होंने कभी अपने गाँव से बाहर क़दम नहीं रखा था.

उनका कहना है, "मैं ख़राब से ख़राब स्थिति की कल्पना कर रही थी. लेकिन तब मुझे अहसास हुआ कि अगर आप लोगों से परिवार की तरह पेश आते हैं, तो वे भी आपसे उसी तरह का व्यवहार करेंगे. 'दीदी की रसोई' के साथ काम करने से मुझे अपने रोज़मर्रा के आम जीवन से बाहर निकलने का साहस और आत्मविश्वास मिला है.”

सरस मेले में प्रियंका और रसोई की अन्य महिलाओं ने मेले में आने वाले लोगों को खाना बेचने के लिए फूड स्टॉल (ठेला) लगाया और उन्होनें ज़िलाधिकारी के सचिवालय के लिए महत्त्वपूर्ण बैठकों के दौरान दोपहर का भोजन भी पहुँचाया. स्थानीय चुनावों और कोरोना महामारी के दौरान (जब लोग अपने घरों में बंद थे) भी उन्होंने सैकड़ों लोगों के लिए भोजन तैयार करने और उसके वितरण का काम किया.

जीविका ने भारतीय स्टेट बैंक और भारतीय रिजर्व बैंक की पटना शाखा के लिए उच्च कोटी के भोजन केंद्र स्थापित किए हैं और अब किओस्क जैसे बाजार आधारित मॉडलों से प्रेरणा लेकर भीड़भाड़ वाले इलाकों में भी उद्यमों को संचालित कर रही है. कई पुराने उद्यमों ने सरकारी और CARE और UNICEF जैसे निजी संस्थानों के लिए भी बड़े स्तर पर भोजन सेवाओं की शुरुआत की है और वे फूड डिलीवरी ऐप के साथ साझेदारी की संभावनाएं तलाश रहे हैं. 

इन रसोइयों की सफलता को देखते हुए, कई अन्य राज्यों ने इस मॉडल को अपनाया है, जिन्हें नेशनल रूरल इकोनॉमिक ट्रांसफॉर्मेशन प्रोजेक्ट (NRETP) द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा है.  विश्व बैंक भारत के ग्रामीण विकास मंत्रालय के साथ मिलकर इस परियोजना को संचालित कर रहा है.

'दीदी की रसोई' जीविका द्वारा बिहार ट्रांसफॉर्मेटिव डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (BTDP) के तहत शुरू किए गए कई उद्यमों में से एक है. कृषि-आधारित और पोषण-सम्बन्धी हस्तक्षेपों के अलावा, इस परियोजना ने अन्य विकास क्षेत्रों में महिला-स्वामित्व वाले उद्यमों को बढ़ावा दिया है.  ख़ुदरा क्षेत्र में 'ग्रामीण बाज़ार', कला और शिल्प क्षेत्र में 'शिल्पग्राम' और मधुमक्खी पालन क्षेत्र में 'मधुग्राम' इसके उदाहरण हैं.

यह लेख पहले यहाँ प्रकाशित हुआ.